सोमवार, 29 फ़रवरी 2016

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 14)

सभी में गुरु ही है समाया

परमेश्वर से एक हो चुके गुरुदेव की चेतना महासागर की भाँति है। सारा अस्तित्व उनमें समाहित है। हमारे प्रत्येक कर्म, भाव एवं विचार उन्हीं की ओर जाते हैं, वे भले ही किसी के लिए भी न किये जाये। इसलिए जब हम किसी को चोट पहुँचती है, दुःख पहुँचाते हैं, तो हम किसी और को नहीं सद्गुरु को चोट पहुँचाते हैं, उन्हीं को दुखी करते हैं। यह कथन कल्पना नहीं सत्य है।

महान् शिष्यों के जीवन की जीवन्त अनुभूति है- श्रीरामकृष्ण परमहंस के एक शिष्य ने बैल को चोट पहुँचायी। बाद में वह दक्षिणेश्वर आकर परमहंस देव की सेवा करने लगा। सेवा करते समय उसने देखा कि ठाकुर की पाँव उस चोट के निशान थे। पूछने पर उन्होंने बताया, अरे! तू चोट के बारे क्या पूछता है, यह चोट तो तूने ही मुझे दी है। सत्य सुनकर उसका अन्तःकरण पीड़ा से भर गया।

महान् शिष्यों के अनुभव के उजाले में परखें हम अपने आपको। क्या हम सचमुच ही अपने गुरुदेव से प्रेम करते हैं? क्या हमारे मन में सचमुच ही उनके लिए भक्ति है? यदि हाँ तो फिर हमारे अन्तःकरण को सभी के प्रति प्रेम से भरा हुआ होना चाहिए। पापी हो या पुण्यात्मा हमें किसी को भी चोट पहुँचाने का अधिकार नहीं है। क्योंकि सभी में हमारे गु़रुदेव ही समाये हैं।

अपवित्र एवं पवित्र कहे जाने वाले सभी स्थानों पर उन्हीं की चेतना व्याप्त है। इसलिए हमारे अपने मन में किसी के प्रति कोई भी द्वेष, दुर्भाव नहीं होना चाहिए। क्योंकि इस जगत् में गुरुदेव से अलग कुछ भी नहीं है। उन्हीं के चैतन्य के सभी हिस्से हैं। उन्हीं की चेतना के महासागर की लहरें हैं। इसलिए शिष्यत्व की महासाधना में लगे हुए साधकों को सर्वदा ही श्रेष्ठ  चिंतन, श्रेष्ठ भावना एवं श्रेष्ठ कर्मों के द्वारा उनका अर्चन करते रहना चाहिए।

क्रमशः जारी
- डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/alls
अहंकार छोड़ें अहंभाव अपनाएं (भाग 5)

सत्ता का मद पहले से ही बहुत था, ओछापन जैसे जैसे बढ़ता जा रहा है वह अहंकार और भी बढ़ रहा है। ऐसे सरकारी कर्मचारी जो जनता का हित अहित कर सकते हैं- जिनके हाथ में लोगों को सुविधा देना या असुविधा बढ़ाना है उनकी शान और नाक देखते ही बनती है। बेकार मनुष्य समय गँवाते रहेंगे पर लोगों की बात सुनने में व्यस्तता का बहाना करेंगे। सीधे मुँह बोलेंगे नहीं।

बात अकड़ कर और अपमानजनक ढंग से करेंगे। इस ऐंठ से आतंकित जनता अपना काम पूरा न होते देखकर रिश्वत के लिये विवश होती है। शासन में या अन्यत्र बड़े संस्थानों में बड़े पदों पर अवस्थित लोगों का रूखा, असहानुभूति पूर्ण और निष्ठुर व्यवहार देखकर उन पर छाये हुए अहंकार के पद का कितना प्रभाव छाया हुआ है इसे भली प्रकार देखा जा सकता है।

सन्त तपस्वियों तक में यह अहंकार उन्माद भरपूर देखा जा सकता है। अपने घरों पर अपने लिये ऊंची गद्दी बिछाते हैं और दूसरे आगन्तुकों को नीचे बैठने की व्यवस्था रखते हैं। यह कैसा अशिष्ट और असामाजिक तरीका है। दूसरे के घर में जायें और वहाँ वे लोग ऊँचे आसन पर बिठायें- खुद नीचे बैठें तो बात कुछ समझ में भी आती है। पर अपने घर आया हुआ अतिथि तो देव है, उसे अपने से नीचा आसन नहीं देना चाहिए। बड़प्पन का अर्थ दूसरों को छोटा समझना या असम्मानित करना नहीं है।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जुलाई 1972 पृष्ठ 16
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1972/July.16

रविवार, 28 फ़रवरी 2016

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 13)

सभी में गुरु ही है समाया

ध्यान रहे जब एक छोटा सा विचार हमारे भीतर पैदा होता है, तो सारा अस्तित्व उसे सुनता है। थोड़ा सा भाव भी हमारे हृदय में उठता है, तो सारे अस्तित्व में उसकी झंकार सुनी जाती है। और ऐसा नहीं कि आज ही अनन्त काल तक यह झंकार सुनी जायेगी। हमारा यह रूप भले ही खो जाये, हमारा यह शरीर भले ही गिर जाये, हमारा यह नाम भले ही मिट जाये। हमारा नामोनिशाँ भले ही न रहे। लेकिन हमने जो कभी चाहा था, हमने जो कभी किया था, हमने जो कभी सोचा था, हमने जो कभी भावना बनायी थी, वह सब की सब इस अस्तित्व में गूँजती रहेगी। क्योंकि हममें से कोई यहाँ से भले ही मिट जाये, लेकिन कहीं और प्रकट हो जायेगा। हम यहाँ से भले ही खो जायें, लेकिन किसी और जगह हमारा बीज फिर से अंकुरित हो जायेगा।

हम जो भी कर रहे हैं, वह खोता नहीं है। हम जो भी हैं, वह भी खोता नहीं है। क्योंकि हम एक विराट् के हिस्से हैं। लहर मिट जाती है, सागर बना रहता है और वह जो लहर मिट गयी है, उसका जल भी उस सागर में शेष रहता है। यह ठीक है कि एक लहर उठ रही है, दूसरी लहर गिर रही है, फिर लहरें एक हैं, भीतर नीचे जुड़ी हुई हैं और जिस जल से उठ रही हैं यह लहर उसी जल से गिरने वाली लहर वापस लौट रही है।

इन दोनों के नीचे के तल में कोई फासला नहीं है। यह एक ही सागर का खेल है। थोड़ी से देर के लिए लहर ने एक रूप लिया, फिर रूप खो जाता है और अरूप बचा रहता है। हम सब भी लहरों से ज्यादा नहीं है। इस जगत् में सभी कुछ लहरवत् हैं। वृक्ष भी एक लहर है और पक्षी भी, पत्थर लहर है तो मनुष्य भी। अगर हम लहरें हैं एक महासागर की तो इसका व्यापक निष्कर्ष यही है कि द्वैत झूठा है। इसका कोई स्थान नहीं है।

क्रमशः जारी
- डॉ. प्रणव पण्डया
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अहंकार छोड़ें अहंभाव अपनाएं (भाग 4)

महँगी चीजें सुरुचि के नाम पर अनावश्यक मात्रा में खरीदी जाती हैं पर वस्तुतः उसका कारण अमीरी की छाप डालना ही होता है। कई व्यक्ति दान पुण्य का ढोंग भी बनाते हैं। यद्यपि उदारता और परमार्थ का नाम भी उनके भीतर नहीं होता पर लोग उनकी अमीरी की बात जानें यह प्रयोजन जिनसे पूरा होता है- उन्हीं दान पुण्यों को अपनाते हैं। ऐसे लोगों का आधा धन प्रायः इन्हीं विडम्बनाओं में खर्च हो जाता है इस प्रकार उस अहंकार की पूर्ति का वे महँगा मूल्य चुकाते रहते हैं।

विद्या का अभिमान और भी अधिक विचित्र है। विद्या का फल ‘विनय’ होना चाहिए। पर यदि विद्वान अविनय शील हो जाय। पग-पग पर अपना सम्मान माँगे और चाहे, उसमें कहीं रत्ती भर कमी दीखे तो पारा चढ़ जाय इस विचित्र मनःस्थिति में ही आज के विद्वान कलाकार देखे जाते हैं। कहीं बुलायें जायें तो ऊँचे दर्जे के वाहन, महँगे निवास, कीमती व्यवस्था की शर्त पहले लगाते हैं। उन्हें सम्मानित स्थान मिला कि नहीं, पुरस्कार उनके गौरव जैसा हुआ कि नहीं, आदि नखरे देखते ही बनते हैं परस्पर कुढ़ते और एक दूसरे की काट करते हैं- इसलिए कि उनका बड़प्पन, सम्मान कहीं दूसरे दर्जे पर न आ जाए।

जिन्हें सभा सम्मेलनों में कभी ऐसे लोग बुलाने पड़ते हैं वे देखते हैं कि जो बाहर से विद्वान कलाकार दीखते थे, भीतर अहंकार से ग्रस्त होने से वस्तुतः वे कितने छोटे हो गये हैं। विद्वानों का संगठन इसी कारण बन पाता है, न टिक पाता है, न चल पाता है। अहंकार की ऐंठ में वे सहयोगी बन ही नहीं पाते- प्रतिद्वन्द्वी ही रहते हैं।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जुलाई 1972 पृष्ठ 16
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1972/July.16
 

शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 12)


सभी में गुरु ही है समाया

इस सूत्र को वही समझ सकते हैं, जो अपने गुरुदेव के प्रेम में डूबे हैं। जो इस अनुभव के रस को चख रहे हैं, वे जानते हैं कि जब प्रेम गहरा होता है तो प्रेम करने वाले खो जाते हैं, बस प्रेम ही बचता है। जब भक्त अपनी पूरी लीनता में होता है, तो भगवान् और भक्त में कोई फासला नहीं होता। अगर फासला हो तो भक्ति अधूरी है, सच कहें तो भक्ति है ही नहीं। वहाँ भक्त और भगवान् परस्पर घुल- मिल जाते हैं। दोनों के बीच एक ही उपस्थिति रह जाती है। ये दोनों घोर लीन हो जाते हैं और एक ही अस्तित्व रह जाता है। प्रेम और भक्ति में अद्वैत ही छलकता एवं झलकता है।

सच यही है कि सारा अस्तित्व एक है और हममें से कोई उस अस्तित्व से अलग- थलग नहीं है। हम कोई द्वीप नहीं है, हमारी सीमाएँ काम चलाऊ हैं। हम किन्हीं भी सीमाओं पर समाप्त नहीं होते। सच कहें तो कोई दूसरा है ही नहीं तो फिर दूसरे के साथ जो घट रहा है, वह समझो अपने ही साथ घट रहा है। थोड़ी दूरी पर सही, लेकिन घट अपने ही साथ रहा है।

भगवान् महावीर, भगवान् बुद्ध अथवामहर्षी पतंजलि ने जो अहिंसा की महिमा गायी, उसके पीछे भी यही अद्वैत दर्शन है। इसका कुल मतलब इतना ही है कि शिष्य होते हुए भी यदि तुम किसी को चोट पहुँचा रहे हो, या दुःख पहुँचा रहे हो अथवा मार रहे हो तो दरअसल तुम गुरु घात या आत्म घात ही कर रहे हो, क्योंकि गुरुवर की चेतना में तुम्हारी अपनी चेतना के साथ समस्त प्राणियों की चेतना समाहित है।

क्रमशः जारी
- डॉ. प्रणव पण्डया
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अहंकार छोड़ें अहंभाव अपनाएं (भाग 3)

किसी का रंग गोरा हो- छवि सुन्दर हो, तो उसके इतराने के लिये यह भी बहुत है। फिर उसके नखरे देखते ही बनते हैं। छवि को सजाने में ऐसा लगा रहता है मानो शृंगार का देवता वही हो। अन्य लोग उसे अष्टावक्र की तरह काले कुरूप दीखते हैं और कामदेव का अवतार अपने में ही उतरा दीखता है। उसकी इस विशेषता को लोग देखें तो- समझें तो-सराहें तो यही धुन हर घड़ी लगी रहती है।

तरह तरह के वेश विन्यास, शृंगार सज्जा की ही उधेड़बुन छाई रहती है। दर्पण को क्षण भर के लिए छोड़ने को भी जी नहीं करता। यह रूप का प्रदर्शन करने की प्रवृत्ति भिन्न लिंग वालों को आकर्षित करने की ओर बढ़ती है। पुरुष स्त्रियों के सामने और स्त्रियाँ पुरुषों के सामने इस तरह बन-ठन कर निकलते हैं जिससे उन्हें ललचाई आँखों से देखा जाय। वर्तमान शृंगारिकता इसी ओछेपन को लेकर बढ़ रही है और उसकी प्रतिक्रिया मानसिक व्यभिचार से आरम्भ होकर शारीरिक व्यभिचार में परिणत हो रही है। अहंकार की यह रूप परक प्रवृत्ति उस सुसज्जा शृंगारी को ऐसे जाल-जंजाल में फँसा देती है जिससे वह अपनी प्रतिष्ठा और शालीनता गँवाकर विपत्ति ही मोल लेता है।

धन का अहंकार ऐसे ठाट-बाट खड़े करता है जिससे उसकी अमीरी सबको विदित हो। मोटर, बँगले, जेवर, वस्त्र ठाट-बाट का इतना बवण्डर जमा कर लिया जाता है जिसके बिना आसानी से काम चलता रह सकता था। विवाह शादियों में लोग अन्धाधुन्ध पैसा फूँकते हैं। उसके पीछे अपनी अमीरी का विज्ञापन करने के अतिरिक्त और कोई लाभ नहीं होता।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जुलाई 1972 पृष्ठ 15-16
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1972/July.15
 

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 11)

सभी में गुरु ही है समाया

शिष्य संजीवनी में सद्गुरु प्रेम का रस है। जो भी इसका सेवन कर रहे हैं, उन्हें इस सत्य की रसानुभूति हो रही है। गुरु भक्ति के भीगे नयन- गुरु प्रेम से रोमांचित तन- मन यही तो शिष्य का परिचय है। जो शिष्यत्व की साधना कर रहे हैं, उनकी अन्तर्चेतना में दिन- प्रतिदिन अपने गुरुदेव की छवि उजली होती जाती है। बाह्य जगत् में भी सभी रूपों और आकारों में सद्गुरु की चेतना ही बसती है।गुरु प्रेम में डूबने वालों के अस्तित्व से द्वैत का आभास मिट जाता है। दो विरोधी भाव, दो विरोधी अस्तित्व एक ही स्थान पर, एक ही समय प्रगाढ़ रूप से नहीं रह सकते। प्रेम से छलकते हुए हृदय में घृणा कभी नहीं पनप सकती। जहाँ भक्ति है, वहाँ द्वेष ठहर नहीं सकता। समर्पित भावनाओं के प्रकाश पुञ्ज में ईर्ष्या के अँधियारों के लिए कोई जगह नहीं है।

संक्षेप में द्वैत की दुर्बलता का शिष्य की चेतना में कोई स्थान नहीं है। अपने- पराये का भेद, मैं और तू की लकीरें यहाँ नहीं खींची जा सकती। यदि किसी वजह से अन्तर्मन के किसी कोने में इसके निशान पड़े हुए हैं तो उन्हें जल्द से जल्द मिटा देना चाहिए। क्योंकि इनके धूमिल एवं धुँधले चिन्ह भी गुरु प्रेम में बाधक है। द्वैत की भावना किसी भी रूप में क्यों न हो, शिष्यत्व की विरोधी है, क्योंकि द्वैत केवल बाह्य जगत् को ही नहीं बाँटता, बल्कि अन्तर्जगत् को भी विभाजित करता है। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि जिसकी अन्तर्चेतना विभाजित है, बँटी- बिखरी है, वही बाहरी दुनिया में द्वैत का दुर्भाव देख पाता है। आखिर अन्तर्जगत् की प्रतिच्छाया ही तो बाह्य जगत् है।

इसीलिए शिष्यत्व की महासाधना के सिद्धजनों में इस मार्ग पर चलने वाले पथिकों को चेतावनी भरे स्वरों में शिष्य संजीवनी के तीसरे सूत्र का उपदेश दिया है। उन्होंने कहा है- ‘‘द्वैत भाव को समग्र रूप से दूर करो। यह न सोचो कि तुम बुरे मनुष्य से या मूर्ख मनुष्य से दूर रह सकते हो। अरे! वे तो तुम्हारे ही रूप हैं। भले ही तुम्हारे भिन्न अथवा गुरुदेव से कुछ कम तुम्हारे रूप हों, फिर भी हैं वे तुम्हारे ही रूप। याद रहे कि सारे संसार का पाप व उसकी लज्जा, तुम्हारी अपनी लज्जा व तुम्हारा अपना पाप है। स्मरण रहे कि तुम संसार के एक अंग हो, सर्वथा अभिन्न अंग और तुम्हारे कर्मफल उस महान् कर्मफल से अकाट्य रूप से सम्बद्ध हैं। ज्ञान प्राप्त करने के पहले तुम्हें सभी स्थानों में से होकर निकलना है, अपवित्र एवं पवित्र स्थानों से एक ही समान।’’

क्रमशः जारी
- डॉ. प्रणव पण्डया
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अहंकार छोड़ें अहंभाव अपनाएं (भाग 2)

अहंकारी व्यक्ति इस भ्रम में पड़ जाता है कि वह उपलब्धियों के कारण दूसरों से बहुत बड़ा हो गया। उसकी तुलना में और सब तुच्छ हैं। सबको उसकी सम्पदाओं का विवरण जानना चाहिए और उस आधार पर उसकी श्रेष्ठता स्वीकार करके सम्मान प्रदान करना चाहिए। इस प्रयोजन के लिए वह विविध विधि ऐसे आचरण करता-ऐसे प्रदर्शन करता है जिससे लोग उसका बड़प्पन भूल न जायें। भूल गये हों तो फिर याद कर लें।

उसके वार्तालाप में आधे से अधिक भाग आत्म प्रशंसा का होता है। बात-बात में अपने वैभव, पराक्रम और बुद्धिमत्ता की चर्चा करता है और अपने को सफल सिद्ध करता है। यद्यपि ऐसा करने की कोई आवश्यकता नहीं होती।

शारीरिक बलिष्ठता गुण्डागर्दी में उभरती है। इसमें यही प्रवृत्ति काम करती है कि लोग उसके बल पर अपना ध्यान केन्द्रित करें, उसे सराहें। यह प्रयोजन अच्छे-सत्कार्य करके भी पूरा किया जा सकता था पर ओछे मनुष्य का दृष्टिकोण उतना परिष्कृत होता कहाँ है? उसे यह बात सूझती कब है। उसमें उस प्रकार की योग्यता भी कब रहती है। सरल उद्दण्डता पड़ती है। किसी का अपमान कर देना, सताना, तोड़ फोड़, अपशब्द, अवज्ञा, उच्छृंखलता, मर्यादाओं का व्यतिक्रम यही बातें ओछे व्यक्ति आसानी से कर सकते हैं। सो ही वे करते हैं। यह विकृत अहंकार ही गुण्डागर्दी के रूप में फूटता है।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जुलाई 1972 पृष्ठ 15
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1972/July.15

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2016

अहंकार छोड़ें अहंभाव अपनाएं (भाग 1)

अहंकार और अहंभाव देखने में एक जैसे लगते हैं और उनको निन्दास्पद समझा जाता है पर वस्तुतः ऐसी बात है नहीं। दोनों में से केवल अहंकार ही निन्दनीय है। अहंभाव तो जीवन का मेरुदण्ड है, यदि वह न हो तो सीधा खड़ा रहना ही कठिन हो जाय।

अहंकार कहते हैं- भौतिक वस्तुओं और शारीरिक क्षमता पर इतराने को- इन कारणों से अपनों को दूसरों से श्रेष्ठ समझने को- अपनी इस उपलब्धि का ऐसा भौंड़ा प्रदर्शन करने को जिससे औरों पर अपने बड़प्पन की छाप पड़े। यह प्रवृत्ति यह जताती है कि यह व्यक्ति सम्पदाओं को हजम नहीं कर पा रहा है और वे ओछेपन के रूप में फूट कर निकल रही हैं।

अन्न जब पचता नहीं तो उलटी और दस्त के रूप में फूटता है। अन्न श्रेष्ठ था पर जब वह इस प्रकार घिनौना होकर बाहर निकलता है तो देखने वाले का जी बिगड़ता है और उस रोगी को भी कष्ट होता है। अन्न बुरा नहीं है और न उसका खाया जाना है। चिन्ता का विषय ‘हैजा’ है। सम्पदाएं बुरी नहीं, उनका होना हेय नहीं, पर उनका नशा बुरा है- जिसे अहंकार कहते हैं।

चावल, जौ, गुड़ इनमें से कोई भी बुरा नहीं। इन्हें हविष्यान्न कहते हैं। पर इन्हें सड़ा कर जब शराब बनाई जाती है तो वह अहितकर और अवाँछनीय बन जाती है। सम्पदा जब विकृत होकर किसी व्यक्ति के मन पर छाती है तो वह नशे जैसा प्रभाव करती है और मनुष्य उन्मत्त होकर उद्धत आचरण करने लगता है। सम्पदाओं की जब ऐसी ही प्रतिक्रिया होती है तो उसे अहंकार कहा जाता है।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जुलाई 1972 पृष्ठ 15
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1972/July.15

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2016

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 10)


पौराणिक साहित्य में ऐसे कई कथानक हैं, जिन्हें पढ़ने से पता चलता है कि बहुत ही समर्थ साधक वर्षों की निरन्तर साधना के बावजूद एकदिन अचानक अपना और अपनी साधना का सत्यानाश करा बैठे। महर्षी वाल्मीकि रामायण के आदिकाण्ड में ब्रह्मर्षी विश्वामित्र की कथा कुछ ऐसी ही है। त्रिशंकु को सदेह स्वर्ग भेजने वाले विश्वामित्र को अपनी साधना में कई बार स्खलित होना पड़ा। ऐसा केवल इसलिए हुआ, क्योंकि उन्होंने अपने ऊपर सजग दृष्टि नहीं रखी। शिष्य का पहला और अनिवार्य कर्त्तव्य है कि वह अपने गुरुदेव के आदर्श को सदा अपने सम्मुख रखे।

गुरु चेतना के प्रकाश में हमेशा स्वयं को परखता रहे कि कहीं कोई लालसा, वासना तो नहीं पनप रही। कहीं कोई चाहत तो नहीं उमग रही। यदि ऐसा है तो वह अपनी मनःस्थिति को कठिन तप करके बदल डाले। उन परिस्थितियों से स्वयं को दूर कर ले। क्योंकि पाप का छोटा सा अंकुर, अग्रि कीचिनगारी की तरह है- जिससे देखते- देखते समस्त तप साधना भस्म हो सकती है। इसलिए शिष्यों के लिए महान् साधकों का यही निर्देश है कि जीवन की तृष्णा एवं सुख की चाहत से सदा दूर रहें। इस सूत्र को अपनाने पर ही शिष्य संजीवनी का अगला सूत्र प्रकट होगा। जिसके द्वारा शिष्यत्व की साधना के नए वातायन खुलेंगे, नए आयाम विकसित होंगे।

क्रमशः जारी
- डॉ. प्रणव पण्डया
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सोमवार, 22 फ़रवरी 2016

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 9)

गुरु चेतना के प्रकाश में स्वयं को परखें

केवल शिष्य ही जीवन का सच्चा ज्ञाता होता है, इसलिए उसे जीवन की महान् सम्भावनाओं को उजागर करने में तत्पर रहना चाहिए। यह तभी सम्भव है कि जब उसके मन में अपने और सभी के जीवन का सम्मान हो। साथ ही वह सुख के लिए इधर- उधर भटके नहीं बल्कि अपने कर्त्तव्य पालन में सुख की अनुभूति करे। भगवान् बुद्ध का कथन है कि इस संसार में सुखी वही है, जिसने सुख की वासना छोड़ दी है। वास्तविक दुख तो वासनाओं का है। जो जितना ज्यादा वासनाओं, कामनाओं एवं लालसाओं से भरा है, वह उतना ही ज्यादा दुःखी है। वासनाओं और लालसाओं के छूटते ही अन्तश्चेतना में शान्ति और सुख की बाढ़ आ जाती है। सब तरफ से सुख ही सुख बरसता है। समूची प्रकृति हर पल मन- अन्तःकरण को सुख से भिगोती रहती है।

समर्पण, श्रमशीलता के साथ शिष्य को हर पल जागरूक भी रहना जरूरी है। उसे हमेशा सजग रहना पड़ता है कि कहीं कोई दुराचार, कोई बुरा भाव तो उसके अन्तःकरण में नहीं पनप रहा। कोई पाप तो उसकी अन्तर्चेतना में नहीं अंकुरित हो रहा। यद्यपि श्रद्धालु शिष्य में इसकी सम्भावना कम है, परन्तु वातावरण का कुप्रभाव कभी भी किसी पर भी हावी हो सकता है। इस समस्या का समाधान सूत्र एक ही है- अपने प्रति कठोरता, दूसरों के प्रति उदारता। औरों के प्रति हमेशा प्रेमपूर्ण व्यवहार करने वाले साधक को अपने प्रति हमेशा ही कठोर रहना पड़ता है। हमेशा ही अपने बारे में सावधानी बरतनी पड़ती है।

अन्तर्मन में वर्षों के, जन्मों के संस्कार हैं। इनमें भलाई भी मौजूद है और बुराई भी।प्रकृति ने परत- दर इनकी बड़ी रहस्यमय व्यवस्था बना रखी है। ऊपरी तौर पर इसे जानना- पहचानना आसान नहीं है। बड़ी मुश्किल पड़ती है इस गुत्थी को सुलझाने में। जो बहुत ही ध्यान परायण है, जिनका अपने गुरु के प्रति समर्पण सच्चा और गहरा है, वही इनके जाल से बच पाते हैं। अन्यथा अचानक और औचक ही इसमें फँस कर अपना और अपनी साधना का सत्यानाश कर लेते हैं।

क्रमशः जारी
- डॉ. प्रणव पण्डया
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रविवार, 21 फ़रवरी 2016

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 8)

गुरु चेतना के प्रकाश में स्वयं को परखें

यह अनुभव सभी महान् शिष्यों का है। शिष्य के जीवन में तृष्णा और सुख की लालसा की कोई जगह नहीं है। मजे की बात है कि तृष्णा और सुख की लालसा किसी को भी सुखी नहीं कर पाती, हालांकि प्रायः सभी इसमें फँसे- उलझे रहते हैं। ऐसे लोगों के लिए जीवन आज में नहीं है, आने वाले कल में है। भविष्य में जीवन को खोजने वाले अपने वर्तमान से हमेशा असन्तुष्ट, असंतृप्त बने रहते हैं। इस सच्चाई का एक पहलू और भी है, जो तृष्णा और सुख की लालसा से अपने आप को जितना भरता जाता है- वह उतना ही अपने अहंकार को तुष्ट और पुष्ट करता रहता है। जबकि अहंकार का शिष्यत्व की साधना से कोई मेल नहीं है।

शिष्यत्व तो समर्पण की साधना है- जिसका एक ही अर्थ है- अहंकार का अपने सद्गुरु के चरणों में विसर्जन। हालांकि इस समर्पण- विसर्जन के साथ भी कई तरह के भ्रम जनमानस में व्याप्त हैं। कई लोगों का सोचना है कि जब हमने समर्पण कर दिया- तब हम फिर कुछ काम क्यों करें? जब तृष्णा नहीं सुख की लालसा नहीं तब फिर मेहनत किसलिए? ये सवाल दरअसल भ्रमित मन की उपज है। जो जानकार हैं, समझदार हैं वे जानते हैं कि समर्पण और श्रद्धा का मतलब- निकम्मापन या निठल्ले बैठे रहना नहीं है। बल्कि इसका अर्थ है- सत्य के लिए, अपने गुरुदेव के लिए स्वयं को सम्पूर्ण रूप से झोंक देना।

इस सम्बन्ध में रमण महर्षी कहा करते थे- यह कैसी उलटबांसी है कि मिट्टी की खोज में आदमी सब कुछ लगा देता है- पर अमृत की खोज में कुछ भी नहीं लगाना चाहता। जबकि शिष्य तो वही है- जो गुरु के एक इशारे पर जीवन पर्यन्त अटूट और अथक श्रम करता रहे। 

क्रमशः जारी
- डॉ. प्रणव पण्डया
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शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 7)

गुरु चेतना के प्रकाश में स्वयं को परखें

शिष्य संजीवनी का सेवन (मनन- चिन्तन) जिन्होंने भी किया है- वे इसके औषधीय गुणों को अनुभव करेंगे, यह सुनिश्चित है। अपने व्यक्तित्व में उन्हें नए परिवर्तन का अहसास होगा। कुछ ऐसा लगेगा- जैसे अन्तःकरण में कहीं शिष्यत्व की मुरझाई- कुम्हलायी बेल फिर से हरी होने लगी है। निष्क्रिय पड़े भक्ति एवं समर्पण के तत्त्वों को सक्रियता का नया उछाह मिल गया है। आन्तरिक जीवन में भावान्तर की अनुभूति उन सबको है- जो इस अमृत औषधि को ले रहे हैं। इन सभी की अनुभूतियों में निखरा हुआ शिष्यत्व बड़ा ही स्पष्ट है। हालांकि इन अनुभूतियों में उनकी जिज्ञासाएँ भी घुली- मिली हैं। इन जिज्ञासाओं का सार एक ही है कि शिष्य संजीवनी की सेवन विधि क्या है?

इस सार्थक प्रश्र के समाधान में शिष्यत्व की साधना करने वाले अपने जाग्रत् स्वजनों से यही कहना है- कि प्रथम बार शिष्य संजीवनी के सूत्रों को एक समर्पित शिष्य की भाँति पढ़ें। दूसरी बार इसमें बताए गए सूत्र पर गहरा चिन्तन करें और उसे अपने जीवन में आत्मसात करने के लिए संकल्पित हों। इसके बीच- बीच में शिष्य संजीवनी के प्रकाश में अपने को परखते रहें कि हम अपनी शिष्यत्व साधना में कहाँ तक खरे उतर रहे हैं। दृढ़ निष्ठा एवं श्रद्धासिक्त समर्पण ही इस महासाधना का सम्बल है।

जिन्होंने अपने अन्तर्जीवन में यह पूंजी जुटा ली है- उनके लिए शिष्य संजीवनी का दूसरा सूत्र है- ‘‘जीवन की तृष्णा और सुख प्राप्ति की चाहत को दूर करो। किन्तु जो महत्त्वाकांक्षी हैं उन्हीं की भाँति कठोर श्रम करो। जिन्हें जीवन की तृष्णा है, उन्हीं की भाँति सभी के जीवन का सम्मान करो। जो सुख के लिए जीवन यापन करते हैं, उन्हीं की भाँति सुखी रहो। अपने हृदय के भीतर पनपने वाले पाप के अंकुर को ढूँढकर, उसे बाहर निकाल फेंको। यह अंकुर श्रद्धालु शिष्य के हृदय में भी यदा- कदा उसी तरह पनपने लगता है जैसे की वासना भरे मानव हृदय में। केवल महावीर साधन ही उसे नष्ट कर डालने में सफल होते हैं। जो दुर्बल हैं, वे तो उसके बढ़ने- पनपने के साथ भी नष्ट हो जाते हैं।’’

क्रमशः जारी
- डॉ. प्रणव पण्डया
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शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2016

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 6)

सबसे पहले शिष्य अपनी महत्त्वाकांक्षा छोड़े

इसीलिए प्रत्येक सद्गुरु अपने शिष्य को पहला निर्देश यही देता है कि महात्त्वाकांक्षा को दूर करो। छोड़ दो यह ख्याल कि तुम्हें किसी के जैसा होना है। सद्गुरु कहते हैं कि तुम्हें तो सिर्फ एक ही ख्याल होना चाहिए कि तुम्हें परमात्मा ने क्या बनाया है, उसे जानना है। प्रत्येक मनुष्य ईश्वर का सनातन अंश है- इस सत्य को अनुभव करना है। इसके लिए किसी और की फोटो कापी बनने की कोई जरूरत नहीं है। आत्मतत्त्व तो सदा ही अपने अन्दर मौजूद है। इसको बस जान लेना है।

आत्मतत्त्व की अनुभूति के लिए अपने आप को स्वयं के सच्चे स्वरूप को अनुभव करने के लिए कुछ जोड़ना नहीं है। सिर्फ कुछ घटाना है। जो कुसंस्कारों का, दुष्प्रवृत्तियों का कचरा इकट्ठा कर लिया है, उसे गलना भर है। हीरा मौजूद है, कचरे के ढेर में, बस कचरा हटाकर हीरा पहचान लेना है। इसके लिए न तो किसी की नकल करने की जरूरत है और नहीं किसी महत्वाकांक्षा की जरूरत है।

महत्त्वाकांक्षा से सिर्फ तुलना दुःख, ईर्ष्या और हिंसा ही जन्म लेते हैं। जितनी ज्यादा महत्त्वाकांक्षाजिसमें है, वह उतना ही दुःखी और अशान्त रहता है। जर्मन दार्शनिक स्लेगल ने यहाँ तक कह डाला है कि महत्त्वाकांक्षा भयावह बीमारी है। मनुष्य जाति और मानवीय सभ्यता का जितना ज्यादा नुकसान इस बीमारी के कारण हुआ है, उतना किसी और कारण नहीं हुआ। स्लेगल के अनुसार मानव इस बीमारी से जितना जल्दी दूर जाय उतना ही श्रेयस्कर है। सत्य- साधना जिनके जीवन की साध्य है, उन्हें इस अभिशाप को किसी भी तरह अपने पास नहीं फटकने देना चाहिए।

जिनका जीवन महत्त्वाकांक्षा से कलंकित है, वे कभी भी शिष्य नहीं हो सकते। जिनकी जिन्दगीमहत्त्वाकांक्षा से अभिशप्त है, उन्हें कभी भी सद्गुरु की शरण नहीं मिल सकती। इसलिए शिष्यत्व की साधना करने वालों के लिए महान् गुरु भक्तों का यही निर्देश है कि छोड़े महत्त्वाकांक्षा। छोड़े तुलना की प्रवृत्ति। बस एक ही बात की फिक्र करें कि अपने आपको किस विधि से सम्पूर्णतया सद्गुरु को सौपें? यदि हमारा जीवन महत्त्वाकांक्षा से रहित है तो कृपालु सद्गुरु इसमें से भगवत् सत्ता को प्रकट कर देंगे। आत्मतत्त्व दिव्यता से जीवन अपने आप ही महक उठेगा। स्वयं ही समस्त दिव्यताएँ अस्तित्व में साकार हो सकेंगी। बस आवश्यकता शिष्य संजीवनी के प्रथम सूत्र को आत्मसात् करने की है। इस प्रथम सूत्र पर मनन ज्यों- ज्यों प्रगाढ़ होगा, त्यों- त्यों हमारी चेतना द्वितीय सूत्र के लिए तैयार हो जायेगी।

क्रमशः जारी
- डॉ. प्रणव पण्डया
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गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 5)


सबसे पहले शिष्य अपनी महत्त्वाकांक्षा छोड़े

जो इस महासाधना के लिए तैयार है, उनके लिए शिष्य संजीवनी का प्रथम सूत्र है- महात्त्वाकांक्षाको दूर करो। क्योंकि शिष्यों के लिए महात्त्वाकांक्षा पहला अभिशाप है। जो कोई अपने साधना पथ पर आगे बढ़ रहा है, उसे यह मोहित करके पथ से विचलित कर देती है। सत्कर्मों एवं पुण्यों को समाप्त करने का यह सबसे सरल साधन है। बुद्धिमान, परम समर्थ एवं महातपस्वी लोग भी इसके जाल मेंफंस कर बराबर अपनी उच्चतम सम्भावनाओं से स्खलित होते रहते हैं। महात्त्वाकांक्षा कितनी भी सम्मोहक व आकर्षक क्यों न हो, पर इसके फल चखते समय मुँह में राख और धूल बन जाते हैं। मृत्यु और विछोह की ही भाँति इससे भी यही सीख मिलती है कि स्वार्थ के लिए अहं के विस्तार के लिए कार्य करने से परिणाम में केवल निराशा ही मिलती है। महत्त्वाकांक्षा प्रकारान्तर से साधना का महाविनाश ही है।

यह अनुभव उन सभी का है, जिन्होंने शिष्य की गहनतम व सफलतम साधना की है। महात्त्वाकांक्षाएवं शिष्यत्व का कोई मेल नहीं है। शिष्य बनने के लिए अपने को गलाना, जलाना और मिटाना पड़ता है, ताकि खाली हुआ जा सके। पात्र बना जा सके और इस पात्रता को सद्गुरु के अनुदानों से परिपूर्ण किया जा सके। महात्त्वाकांक्षा इस प्रक्रिया की एकदम विरोधी है। यह कुछ होने की वासना है। अपनी क्षुद्रताओं को पोषित करने का पागलपन है।

महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति सदा ही अपनी क्षुद्रताओं से घिरा रहता है। महात्त्वाकांक्षा में निहित सत्य का यदि मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें तो यही तथ्य उजागर होता है कि जो जितना अधिक आत्महीनता से ग्रस्त है, वह उतना ही इसके पाश में जकड़ जाता है। ऐसा व्यक्ति हमेशा ही दूसरे के धन, पद, स्वास्थ्य, वैभव को देखकर ललचाता रहता है। उसे हर क्षण यही लगता रहता है कि इसके जैसा बन जाऊँ, उसके जैसा बन जाऊँ। यह भटकन उसे सदा ही आत्मविमुख बनाये रखती है। इस मनोदशा में अपनी सम्भावनाओं को जानने, खोजने, इन्हें साकार करने की सुधि ही नहीं आती।

क्रमशः जारी
- डॉ. प्रणव पण्डया
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बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 4)

सबसे पहले शिष्य अपनी महत्त्वाकांक्षा छोड़े

शिष्य संजीवनी शिष्यों के लिए प्राणदायिनी औषधि है। इसका प्रत्येक सूत्र केवल उनके लिए है, जिनके हृदय में शिष्य होने की सच्ची चाहत है। जो सद्गुरु के प्रति सर्वस्व समर्पण में अपनी पहचान खोजना चाहते हैं। ध्यान रहे शिष्य का अर्थ है, जो सीखने के लिए राजी है, जो झुकने को तैयार है। जिसके लिए ज्ञान, अहंकार से कहीं ज्यादा मूल्यवान है। जो इस भावदशा में जीता है कि मैं शिष्यत्व की साधना के लिए सब कुछ खोने के लिए तैयार हूँ। मैं अपने आप को भी देने के लिए तैयार हूँ। शिष्यत्व का अर्थ है- एक गहन विनम्रता। शिष्य वही है- जो अपने को झुकाकर, स्वयं के हृदय को पात्र बना लेता है।

आप और हम कितने भी प्यासे क्यों न हों, पर बहती हुई जलधारा कभी भी छलांग लगा कर हमारे हाथों में नहीं आयेगी। इसका मतलब यह नहीं है कि जलधारा हम पर नाराज है। उल्टे वह तो हर क्षण प्रत्येक की प्यास बुझाने के लिए तत्पर है। लेकिन इसके लिए न केवल हमें झुकना होगा, बल्कि झुककर अञ्जलि बनाकर नदी का स्पर्श करना होगा। फिर तो अपने आप ही बहती जलधारा हमारे हाथों में आ जायेगी। तो ये शिष्य संजीवनी के सूत्र उनके लिए हैं, जो झुकने के लिए तैयार हैं। केवल प्यास पर्याप्त नहीं है। इसके लिए अञ्जलि बनाकर झुकना भी पड़ेगा।

जिनके मन अन्तःकरण में केवल एक ही भाव अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित होता है कि सद्गुरु के चरणों में मैं मिट जाऊँ तो कोई हर्ज नहीं है, लेकिन जीवन का रहस्य मुझे समझ आ जाये। जो सोचते हैं कि मैं अपने सद्गुरु के चरणों की धूलि भले ही बन जाऊँ, पर उनकी कृपा से यह जान लूँ कि जिन्दगी का असल स्वाद क्या है, अर्थ क्या है? प्रयोजन क्या है? मैं क्यों हूँ और किसलिए हूँ? बस ऐसे ही सजल भाव श्रद्धा वाले शिष्यों के लिए शिष्य संजीवनी की यह सूत्र कथा है। इनमें से प्रत्येक सूत्रनवागत शिष्यों के लिए शिष्य परम्परा की महानतम विभूतियों की ओर से निर्देश वाक्य है। इसे सम्पूर्ण रूप से मानना ही शिष्यत्व साधना की गहनता में प्रवेश करना है।

क्रमशः जारी
- डॉ. प्रणव पण्डया
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मंगलवार, 16 फ़रवरी 2016

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 3)


अनुभव के अक्षर

महान् शिष्यों के साधनामय जीवन का सार यह कथन बड़ा ही रहस्यमय एवं अतिशय प्रभावी है। इसमें पहली बात बड़ी स्पष्ट है कि कोरी भावुकता, बात- बात में आँसू बहाना गुरु भक्ति का परिचय नहीं है। शिष्यत्व की साधना के लिए पहली जरूरत समर्पित दृढ़ता की है। दृढ़ता से भरी अश्रुविहीन आँखें ही गुरुचेतना को निहार सकती हैं। जहाँ तक कानों की बात है- सो वे गुरु निन्दा और विषय चर्चा के लिए बहरे हों ताकि वे सद्गुरु की परावाणी सुन सकें। और यदि हम यह चाहते हैं कि हमारे स्वर सद्गुरु को स्पर्श करें- तो हमारी वाणी का किसी और को चोट पहुँचाने की प्रवृत्ति से मुक्त होना आवश्यक है। ऊपर कही गयी इन तीनों बातों का मेल बड़ा दुर्लभ है। क्योंकि जब समर्पित भक्ति जगती है, तो उसमें कहीं से, चुपके से कट्टरता, संकीर्णता आकर जहर घोल देती है। और हम अपने विरोधियों के लिए विद्रोही बन जाते हैं।

परन्तु शिष्यत्व की साधना करने के लिए यह पूर्णतया वर्जित है। उनका अन्तःकरण तो गुरु- प्रेम से इस कदर परिपूर्ण होना चाहिए कि उसमें तनिक से भी द्वेष और तनिक सी भी कड़वाहट की कोई गुंजाइश ही न रहे। हमारी भक्ति इतनी अधिक प्रगाढ़ हो कि शिष्यत्व की साधना के लिए बढ़ने वाला हमारा प्रत्येक कदम हमारे अपने हृदय के रक्त से यानि की प्रगाढ़ भावनाओं से धुला हुआ- परम पवित्र हो। यदि हम यह कर सकते हैं तो ही हम शिष्यत्व की साधना के अधिकारी हैं। और ये शिष्य संजीवनी के परम गोपनीय सूत्र हमारे लिए हैं। इन योग्यताओं के साथ ही हम इस राह पर आगे बढ़ सकते हैं। क्योंकि यह राह हठी, उन्मादियों एवं अहंकारियों के लिए नहीं है। साधना का परम रहस्य मार्ग केवल शिष्यों के लिए है। जिनमें समर्पित संकल्प और संकल्पित समर्पण कूट- कूटकर भरा है।

गुरु पूर्णिमा के परम दुर्लभ क्षणों में इस पुस्तक के प्रकाशन के अवसर पर प्रत्येक शिष्य टटोलें अपने आप को, करें स्वयं का आत्मावलोकन, करें सच्ची समीक्षा स्वयं अपने आपकी। क्या आप तैयार हैं शिष्य बनने के लिए? क्या आपके पास है वह साहस और हौसला जो शिष्यत्व की साधना की कठिन राह पर आपको चला सके? यदि हाँ- तो शिष्य संजीवनी हम सभी के साधना पथ पर अपना उजाला बिखेरने के लिए आप के हाथों में है। इसके सभी अक्षर अनुभव के अक्षर हैं। जिन्हें मैंने परम पूज्य गुरुदेव के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष सान्निध्य में रहकर अर्जित किया है।

क्रमशः जारी
- डॉ. प्रणव पण्डया
गुरु पूर्णिमा, 7 जुलाई 2009
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सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 2)



अनुभव के अक्षर

इन प्रश्रों से मेरी अन्तर्भावनाओं को स्फुरणा मिली है कि शिष्यत्व की कठिन साधना के परम रहस्यमय एवं सदा से गोपनीय रखे गए कुछ विशेष सूत्रों को साधकों के सामने प्रकट किया जाय। जो इनकी साधना करेंगे उन पर देश- काल के सभी बन्धनों से परे सद्गुरु की परम चेतना अजस्र अनुदान बरसाती रहेगी। यह बात केवल वैचारिक उक्ति भर नहीं है। यह महासत्य है, जो युग- युग के, भारतभूमि एवं अन्यान्य देशों के समर्पित शिष्यों की शिष्यत्व साधना का सार है। ध्यान रहे कि ये सूत्र उन्हीं के हैं और जो व्याख्या है वह परम पूज्य गुरुदेव की अन्तःप्रेरणा से प्रकट हुई है। इस सब में यदि किसी का सच्चा स्वत्व है, तो वह गुरु- शिष्य की महान परम्परा का है। महान् गुरुओं की करूणा और समर्पित शिष्यों की साधना के निष्कर्ष हैं- ये सूत्र और उनकी क्रमिक व्याख्या। शिष्यों के लिए संजीवनी औषधि की भाँति होने के कारण- इस पुस्तक का नाम भी ‘शिष्य संजीवनी’ है।

यदि आप शिष्य हैं- अथवा होने की चाहत रखते हैं- तो यह शिष्य- संजीवनी औषधि आपके लिए है। प्रतिदिन इस पर मनन- चिन्तन करना, इन्हें क्रियान्वित करना आपका परम कर्त्तव्य है। ध्यान रहे यदि आपके अन्तःकरण में गुरु- प्रेम की दीवानगी हिलोरे मार रही है- तो यह साधना पथ आपके लिए है। यह साधना केवल उनके लिए है जिन्हें अपने प्यारे गुरुवर के बिना रहा नहीं जाता। जो अपने अस्तित्त्व को सद्गुरु की चेतना में समर्पित- विसर्जित और विलीन कर देना चाहते हैं। शिष्य संजीवनी की यह महाऔषधि उनके लिए है- जो श्रेष्ठ शिष्यों की अग्रिम कतार में खड़ा होना चाहते हैं। जो बार- बार अनेक बार, अनगिनत बार अपने गुरुवर द्वारा ली जाने वाली कठोरतम परीक्षा में खरे उतरना चाहते हैं। जिनकी एक मात्र चाहत है कि जिएँगे तो गुरुदेव के लिए और मरेंगे तो गुरुदेव के लिए। गुरुवर के लिए जीवन, गुरुवर के लिए मरण, जिनके जीवन का मकसद है। ऐसे शिष्यों के लिए जीवन औषधि है यह शिष्य संजीवनी।

ऐसे मरजीवड़े शिष्यों के लिए शिष्यत्व की कठिन साधना में उतरने के लिए कुछ विशेष बातें माननी जरूरी हैं। गुरु भक्त शिष्यों की महान् परम्परा उनसे कहती है- इससे पहले तुम्हारे नेत्र देख सकें, उन्हें आँसू बहाने की क्षमता से मुक्त हो जाना चाहिए। इसके पहले तुम्हारे कान सुन सकें, उन्हें बहरे हो जाना चाहिए। और इसके पहले तुम सद्गुरुओं की उपस्थिति में बोल सको, तुम्हारी वाणी को चोट पहुँचाने की वृत्ति से मुक्त हो जाना चाहिए। इसके पहले तुम्हारी आत्मा सद्गुरुओं के समक्ष खड़ी हो सके, उसके पाँवों को हृदय के रक्त से धो लेना चाहिए।

 क्रमशः जारी
- डॉ. प्रणव पण्डया
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👉 शिष्य संजीवनी (भाग 1)


अनुभव के अक्षर

प्रत्येक साधक की सर्वमान्य सोच यही रहती है कि यदि किसी तरह सद्गुरु कृपा हो जाय तो फिर जीवन में कुछ और करना शेष नहीं रह जाता है। यह सोच अपने  सारभूत अंशों में सही भी है। सद्गुरु कृपा है ही कुछ ऐसी- इसकी महिमा अनन्त-अपार और अपरिमित है। परन्तु इस कृपा के साथ एक विशिष्ट अनुबन्ध भी जुड़ा हुआ है। यह अनुबन्ध है शिष्यत्व की साधना का। जिसने शिष्यत्व की महाकठिन साधना की है, जो अपने गुरु की प्रत्येक कसौटी पर खरा उतरा है- वही उनकी कृपा का अधिकारी है। शिष्यत्व का चुम्बकत्व ही सद्गुरु के अनुदानों को अपनी ओर आकॢषत करता है। जिसका शिष्यत्व खरा नहीं है- उसके लिए सद्गुरु के वरदान भी नहीं हैं।

गुरुदेव का संग-सुपास-सान्निध्य मिल जाना, जिस किसी तरह से उनकी निकटता पा लेना, सच्चे शिष्य होने की पहचान नहीं है। हालांकि इसमें कोई सन्देह नहीं है कि ऐसा हो पाना पिछले जन्मों के किसी विशिष्ट पुण्य बल से ही होता है। परन्तु कई बार ऐसा भी होता है जो गुरु के पास रहे, जिन्हें उनकी अति निकटता मिली, वे भी अपने अस्तित्त्व को सद्गुरु की परम चेतना में विसॢजत नहीं कर पाते। और कई बार ऐसा हो भी जाता है। पास रहना या दूर रहना, सद्गुरु के देह रहने पर उनसे जुड़ना या उनके देहातीत होने पर उनके प्रेम में पड़ना कोई विशेष अर्थ नहीं रखते हैं। अर्थवत्ता केवल शिष्यत्व की है। यह जहाँ है, जिधर भी है, जिस काल में है, वहीं गुरुवर के अनुदान-वरदान बरसते चले जाएँगे।
 शिष्यत्व की साधना कहाँ से और कैसे प्रारम्भ करें? यह सवाल प्रत्येक गुरु अनुरागी के मन में रह-रहकर स्पन्दित होता है। प्रत्येक शिष्य की चाहत होती है कि हम सच्चे शिष्य कैसे बनें? शिष्यत्व की कठिन साधना करके गुरु प्रेम के सर्वोत्तम अधिकारी कैसे बनें?

क्रमशः जारी
- डॉ. प्रणव पण्डया
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मंगलवार, 2 फ़रवरी 2016

 चिंतन का महत्त्व और स्वरूप (भाग 1)

 चिंतन उसे कहते हैं जिसमें कि भूतकाल के लिये विचार किया जाता है। भूतकाल हमारा किस तरीके से व्यतीत हुआ, इसके बारे में समीक्षा करिये। अपनी समीक्षा नहीं कर पाते आप। दूसरों की समीक्षा करना जानते हैं। पड़ोसी की समीक्षा कर सकते हैं, बीबी के दोष निकाल सकते हैं, बच्चों की नुक्ताचीनी कर सकते हैं, सारी दुनिया की गलती बता सकते हैं, भगवान् की गलती बता देंगे और हरेक की गलती बता देंगे। कोई भी ऐसा बचा हुआ नहीं है, जिसकी आप गलती बताते न हों। लेकिन अपनी गलती; अपनी गलती का आप विचार ही नहीं करते। अपनी गलतियों का हम विचार करना शुरू करें और अपनी चाल की समीक्षा लेना शुरू करें और अपने आपका हम पर्यवेक्षण शुरू करें तो ढेरों की ढेरों चीजें ऐसी हमको मालूम पड़ेंगी, जो हमको नहीं करनी चाहिए थी और ढेरों की ढेरों ऐसी चीजें मालूम पड़ेगी आपको, जो इस समय हमने जिन कामों को, जिन बातों को अपनाया हुआ है, उनको नहीं अपनाना चाहिए था।

मन की बनावट कुछ ऐसी विलक्षण है, अपना सो अच्छा, अपना सो अच्छा, बस। यही बात बनी रहती है। अपना स्वभाव भी अच्छा, अपनी आदतें भी अच्छी, अपना विचार भी अच्छा, अपना चिंतन भी अच्छा, सब अपना अच्छा, बाहर वालों का गलत। आध्यात्मिक उन्नति में इसके बराबर अड़चन डालने वाला और दूसरा कोई व्यवधान है ही नहीं। इसीलिये आप पहला काम वहाँ से शुरू कीजिए कि आत्म समीक्षा।

एकान्त में चिंतन के लिये जब आप बैठें तो आप यह समझें कि हम अकेले हैं और कोई हमारा साथी या सहकारी है नहीं। साथी अपने स्थान पर, सहकारी अपने स्थान पर, कुटुम्बी अपने स्थान पर, पैसा अपने स्थान पर, व्यापार अपने स्थान पर, खेती- बाड़ी अपने स्थान पर; इन सबको अपने- अपने स्थानों पर रहने दीजिए। आप तो सिर्फ ये विचार किया कीजिए, हम पिछले दिनों क्या भूल करते रहे? रास्ता भटक तो नहीं गये, भूल तो नहीं गये, इसीलिये जन्म मिला था क्या? जिस काम के लिये जन्म मिला था, वही किया क्या? पेट के लिये जितनी जरूरत थी, उससे ज्यादा कमाते रहे, क्या? कुटुम्ब की जितनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए थी, उसको पूरा करने  के स्थान पर अनावश्यक संख्या में लोड बढ़ाते रहे क्या? और जिन लोगों को जिस चीज की जरूरत नहीं थी, उनको प्रसन्न करने के लिये उपहार रूप में लादते रहे क्या? क्यों? वजह क्या है? ये सब गलतियाँ हैं।

क्रमशः जारी
(युगऋषि, वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ पं. श्री आचार्य श्रीराम शर्मा द्वारा दिए गये उद्बोधन का लिपिबद्ध स्वरूप)
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